Thursday, January 23, 2014

कथा लज


कैलास दास
सावित्री लजक देखिक छक्क पडि गेल । ओ जे सोचने छल ओहिसँ उल्टा भेल । लजक भितरमे एगो टिभी चलि रहल छल । पवन किछुखान टिभी देखाबक लेल कहैत सावित्रीके ओछाओन पर लऽ गेल । सावित्री लजक ओछाओन पर बैसिल छल की पवन ओकर देह पर हाथ राखि सहलाबए लगल । पवनक हाथ सावित्रीक देह पर पड़ैत सावित्री पवनक मोनक भाव बुझि गेल आ ओ बाजल ‘पवन हम सोचने छली कि लज मतलव विदेश जाएवालासभ केनाकेना काज करैत अछि सेएह सिखबएवाला कोनो चीज हएतै । हम सुनने छलहुँ जे लजमे जाएवालक लेल पैसा लगैत अछि तऽ अवश्यक किछु सिखएवाला हएतै मुदा एताह तऽ....’
‘अहाँ अखन धरि गामघर मात्रै देखने छी । शहरक परिवेस सभ देखबन्हि तब नहि, अपने आ अपन बच्चाक सभक भावना बुझि सकब’ बजैत पवन सावित्रीके आओर नजदिक बैसिकऽ अपन हात आगा बढैत अछि कि अनायासे देह पर हाथ पडला सँ सावित्री चिहुकि उठल आ फेर सँ बाजल, ‘अहाँ की कऽ रहल छी ।’ सावित्री देह पर सँ हाथ हटबैत ‘चलू लाँज देखि लेलहुँ । ’
सावित्रीके वियाह रंजनसँ भेल छल । दुनू गोटेमे बड प्रेम छल । ओकर प्रेमक चर्चा भरिगाम छल । दुनू गोटेक सुमधुर प्रेममे दू वर्ष कोना बित गेल पतो नहि चलल ।
दू वर्षक क्रममे एकटा लडका भेल । बड स्नेहसँ ओकर नाम राजा रखलक । मुदा हुनकर स्वस्थ्य कहियो नीक नहि रहए । ओ चाहैत छल राजा पढ़िके बडका लोक बनैक । मुदा एहिके लेल बहुत पैसाके आवश्यकता अछि ।
रंजन गरीब तऽ आवश्य छल मुदा सावित्री के प्रेम आ सहयोग पावि कऽ कहियो अपने आप के अभाव महसुस नहि कऽ रहल छल । एक कट्ठा घरारी आ पाँच कट्टा खेत अछि रंजनके । माय—बाबु आ तीन व्यक्ति अपने लगा कऽ पाँच गोटेक परिवार अछि । दिन वितैत गेल आ परिवारिक भार सेहो बढैत गेल । एगो कमाई वाला आ पाँच गोटे खाएवला । पैसाक अभाव स्वभाविक अछि । ताहिमे राजाक पढाईक चिन्ता सेहो ।
जेकरा सँ कर्जा लेने रहैक ओसभ किछु दिनक बाद सेहो तङ्ग करए लागल । एक दिन तङ्ग भऽकऽ सावित्री बाजल, ‘एता रहला सँ कर्जा नहि सधत । बौआक बीमारीक कर्जा आ पछिला किछु कर्जा सेहो अछि । बुझाइए घर पर रहला सँ कर्जासभ नहि सधत । एक बेर अहुँ विदेश जा कऽ देखतहुँ ।’ सावित्री उदास भऽ बाजल ‘कर्जा सेहो सधि जएत आ राजुक पढाई लिखाईकऽ लेल....।’
‘माय—बाबु आ अहाँक छोडिकऽ हमरा कनिको विदेश जएबाक मोन नहि होइए । सुनैत छियए विदेशमे सेहो अब बड ठगी होइत अछि । फेर राजा सेहो छोट अछि । ताहुमे उ सभदिन बिमारे रहैत अछि । तेएँ....।’
‘जाई देबक मन ककरो थोरही होइत अछि । मुदा हारने करब की ? अपन सभ सम्पति बेचिओ देव तऽ कर्जा नहि सधत आ एता रहला सँ दिनप्रतिदिन कर्जा बढिते जाएत । दू—तीन सालके तऽ बात अछि । फेर सुखे—सुख रहत । देखियो ने भण्डारी के सेहो अपने जेकाँ हाल रहैक । मुदा विदेश जाएते ओकर सभ दुःख दूर भऽ गेलैए । पक्काक कोठा सेहो बना लेलन्हि आ अपन बच्चा सभके बोर्डिङ्ग स्कूल मे पढबैत अछि ’ सावित्री बाजल ।
‘मुदा अहाँ बिना एक दू वर्ष की, एको दिन मुस्किल अछि.।’
‘सुखे कोई थोरही नहि जाइत अछि । भगवाने हमरा सभक एहन कऽ देलक त कि करबनि....।’ सावित्री रंजनके समझबैत बाजल ।
‘सेएह त अहुँके बात साँचे अछि । मुदा जाएबाक लेल तऽ कम्तिमे एक लाख रुपैया चाही । कहादुन किछुओ के तालिम लऽकऽ जाएत अछि तऽ तलव बेसी दैत अछि  आ ओकरा लेल जनकपुरमे तालिम लेबए पडत,ओहुँ पैसा सेहो खर्च हएत ।’
‘ओकर चिन्ता नहि करु अहाँ । विदेश जाएवालाके नाम पर जतेक रुपैया चाही, ओतेक गाम मे भेट जाइत अछि ।’

किछु दिनक बाद रंजन पासपोर्ट बना विदेश चलि गेल । रंजनके विदेशमे काम बढिया भेट गेल । महिनाके बीस पच्चीस हजार रुपैया खाए पी कऽ बचा लैत छल । दू वर्ष बितलो नहि छल कि ओ सभ कर्जा सधा लेलक । कर्जा सधिते रंजनके बडका होबएके सपना बढैत गेल । राजा के सेहो जनकपुरक एकटा बोर्डिङ्ग स्कूलमे नाम लिखबा देबक लेल कहि देलक । राजा अब जनकपुरक हाँस्टलमे रहिकऽ पढय लागल । रंजन आब घर बनाएबाक लेल सोचए लागल । जहिना अपन पत्नी सावित्री सँ प्रेम छल आब रंजनके कतारमे रुपैया सँ प्रेम भऽ गेलन्हि । दू वर्ष वितल की ओ फेर सँ दू वर्षक लेल पोसपोर्टमे समय बढा लेलक ।
सावित्री आब असगरे भऽ गेल । राजा छलैक तऽ ओकरोसँग समय कटि जाएत छल । बुढ साउस—सासुर बेसी समय खेतक कामकाज मे लागल रहैत छल । ओना तऽ सावित्री समय काटय लेल घरमे टिवी, भिसीडी सेहो लगा लेलक ।
एक दिन सावित्री माछ लाबए धनौजी बजार गेल । ओतहि बजारमे सावित्रीक नैहरके सहेली गीतासँ भेट भऽ गेलन्हि । दुनू गोटे घरक बातचित बतिआए लागल । बातचित करैत—करैत कोना साँझ भऽ गेल पतो नहि चलल । किछुए देरबाद पश्चिम दिससँ अन्हर तुफान जेकाँ बादल गरजए लागल । देखिते—देखित टिपटिप कऽ पानी पडए लागल । एकाएक सावित्रीके घरक याद आएल आ ओ बाजल ‘गे देखहि पानिओ पडए लगलै ? कतेक दिनक बाद भेटलेह सेहो बतियाई के फुरसद नहि छै । जो  दोसर दिन बतिआएब । ’ कहिकऽ दुनू गोटे दू दिस चलि गेल ।
सावित्री जोर सँ झटकारैत घर दिस जाए लागल । जखने ओ बजारसँ निकलिकऽ चोउरीक गाछ लग पहुँचल की अन्हर—तुफान सँगहि पानी जोर—जोरसँ पडैय शुरु कऽ देलक । एक तऽ अन्हार रहैक दोसर मे पानिके सँगहि अन्हर बिहारि । ऐहन मे सावित्रीके आगा बढएके हिम्मत नहि भऽ रहल छल आ ओ एगो गाछ लग जा कऽ खाढ भऽ गेल ।
सावित्री असगरे गाछ लग डराएल जेकाँ ठाढ छल । अन्हर बिहारि गाछके उखारि फेक देत जेना लागि रहल । गाछ छोडिके जाएके विचार होइक तऽ बुझाए हावा उडाके लऽ जाएत । गाछक जडिमे सावित्री चुपचाप बैसि गेल ।
किछुए देरक बाद जखन अन्हर तुफान रुकल तऽ सावित्री खाड भऽ जाएके सोचि रहल छल कि बाजर दिससँ एगो साइकिलवाला आबि सावित्रीके मुहपर टर्च बारलक । टर्चक छर्ररा देखिकऽ सावित्री डरसँ थरथराए लागल । सावित्री के जेना लागि रहल छल आई हम बाँचि कऽ घर नहि जा सकब । ओ अपन चेहरा के छुपाबए के कोशिशमे लागि गेल ।
‘अहाँ के छी । अकेले इहा की कऽ रहल छी ।’ साइकिलवाला बाजल ।
सावित्री मर्दक आवाज सुनिक आओर भयभित भऽ गेल आ थरथराइत बाजल ‘हम एतही.., लखौरी ....जाएब । बजार आएल छलहुँ । पानी घेर लेलक त....’
साइकिलवाला सावित्रीके नजिक पहुँचकऽ—‘चलु हम अहाँकऽ घरधरि छोडि दैति छी । अहाँक गामसँ आगा हमरे गाम अछि औरही ।’
‘नहि ई जाथुन, हम चलि जाएब ।’ सावित्री हिम्मत कऽकऽ बाजल ।
‘डराउ नहि, हम अहिके परोसी छी । किछु नहि हएत ।’ साइकिवाला आग्रह स्वरमे कहलक ।
दुनू गोटेक गाम जाएवाला एकेटा रास्ता भेलाक कारण सावित्री सँगहि जाएबाक लेल तयार भऽ गेल । साइकवाला आगा आगा टर्च बारि रहल छल आ सावित्री साइकल के पकडने पाछु पाछु जाए लागल । बाटमे अबैत खान दुनू गोटेके परिचय सेहो भेलन्हि । दुनू गोटे घरासयी बातसभ बतियात—बतियात गाम पहुँच गेलन्हि ।
‘एतेक बतिया लेलहँु आ नामो नहि जलहुँ, की नाम अछि’ साइकिलवाला पुछलक
‘सावित्री’
‘अहाँक’ सावित्री हँसैत बाजल
‘पवन’
‘जखन परोसी छी तऽ चलु न घरो दुआर त देखि लेब ।’ सावित्री डराइते बाजल ।
‘आई नहि फेर दोसर दिन । ओना हमर गामक चउरी आ अहाँक गामक चउरी एके छैक । काल्हि खेत पर अएबाक सेहो छैक । हमहुँ विदेशे छलहुँ । दू महिना भेल एतह आएला,’ पवन बाजल । ‘एखन जाई दिए, बड अन्हार लगैत छैक,’ पवनि मुस्कैत चलि गेल ।
सावित्री किछु क्षण पवनके ओहिना देखैत रहि गेल । जखन पवन ओकरा सँ परोछ भऽ गेल तखन ओकर ध्यान टुटल आ घरक कामकाजमे लागि गेल । खाना बनबैत कालमे सावित्रीके अपने आप हँस्सी सेहो अबैत रहए । जखन ओ सुतल छल तऽ सोचए लागल ‘पवन नीक व्यक्ति अछि । अगर ओ नीक नहि रहितैक तऽ बाटमे हमरा किछुओ कऽ सकैत छल । बातो बड नीक—नीक करैत अछि । लोकसभ कहैत अछि मर्द महिलाके देखिक हैवान भऽ जाएत अछि, मुदा सएह ते पवन मे नहि देखलहुँ ।’ सावित्री फेर सँ अपन कपाड झटैत ‘हुँ... ओकरा सँ हमरा कि लिएदिएके । जतह के छलैक ओतह चलि गेलैक ।’ कपाड के ठोकैत ‘हमर दिमागे जे अछि नहि बिना कामके सोचए लगैत अछि ।’ किछु देर बाद फेरसँ रंजन दिस ध्यान लगबैत सुति रहल ।
सावित्री भोर होइते खेत पर पहुँच गेल छल । ओ चारु दिस चकुआए लागल । कतौ केकरो नहि देखि रहल छल । जेना लागि रहल छल ओ केकरो खोजि रहल हुअए आ ओ व्यक्ति नहि भेटला पर उदास भऽ गेल हुअए ।
किछु देरक बाद सावित्री उदास भऽ घर दिस जऽ रहल छल कि पवन के अपन जनके हल्ला करैत अवाज सुनिकऽ सावित्री रुकि गेल । जखन पवन नजिक आएल तऽ सावित्री बाजल ‘अहुँके खेत एम्हरे छैक नहि ।’
‘हँ....इहे खेत अछि’ इशारा करैत पवन बाजल ।
सावित्री किछु देर रुकल आ फेरसँ घर चलि गेल ।
सावित्रीके गेलाक बाद पवन के हृदय जोडजोड सँ धडकए लागल । ओ सोचए लागल किछु देर आओर रुकतैक त की भऽ जाइतै । कतेक मिठ बजैत अछि सावित्री । बुझाए बात करिते रहिती । ठाढ भऽ सोचए लागल कोनो बहन्हे सावित्रीसँ भेटबाक लेल उपाय सोचए पडत ।
एकदिन फेरसँ पवन बाजर दिस जा रहल छल कि ओ घर दिस रुकिकऽ इम्हर ओम्हर ताकए लागल कि देखलक सावित्री कल सँ पानी भरि रहल अछि । पवनके देखिक सावित्री घर दिस जाए लागल कि पवन बाजल, ‘बौआ के समाचार सभ केहन अछि । बढिया सँ तऽ पढैत अछि की नहि ?’
‘छुटीमे घर लऽ अएबै । अखन जनकपुरे अछि ।’ सावित्री बजैत घरमे घुसि गेल ।
एक दिन सावित्री अपन खेत लग घुमि रहल छल की धराक दऽ पवन पहुँचल आ सावित्री सँ बाजल —‘अहूँ कतेक व्यस्त रहैत छी सावित्री’
कामधाम रहितैक तब ने व्यस्त । दिनभरि त ओहिना घरेमे रहैत छी । सोचली कनिक खेतेमे घुमिफिर ली ।’ सावित्री बाजल ।
किछु देर धरि सावित्री आ पवन बीच बातचित भेल । एहि क्रममे दुनू एक दोसरसँ खोलिकऽ बाजए लागल । किछुए दिनक भेटघाट सँ पवन मनहि मन सावित्रीप्रति भावुक बनि गेल ।
एक दिन सावित्री पुछलक —‘पवन अहाँ तऽ विदेशी मे रहि चुकल छी । विदेश मे केहन घर दुआरसभ होइत छैक । बडका....बडका... घर दुआर सभ होइत होतैक ने ।’
‘अपना इहा के जे लज सभ होइत छैक नहि ओहने—ओहने मकान सभ विदेश मे रहैत छैक ।’ पवन बाजल ।
‘आइए लज केकरा कहैत छैक....लज केहन होइत छैक । अपनो सभके यहाँ लज छैक ।’ सावित्री उत्सुकता पूर्वक बाजल ।
‘जनकपुरेमे तऽ लँज छैक ..। नहि देखने छियए ..। कहियो जनकपुर जाएब तऽ देखा देब ।’ पवन कनिका स्थरिसँ कहलक ।
सावित्रीके लज देखबाक इच्छा जागि गेल । ओनी पवन के सेहो सावित्रीप्रति उत्तेजना बढैत गेल । भेटक क्रम बढैत गेल ।
एक दिन सावित्री के श्रीमान् रंजन विदेशसँ रुपैया पठोलक । सावित्री सोचलक रुपैया छोडाबए लेल जनकपुर तऽ चाहि पडत मुदा पवन के लऽकऽ जाएब तऽ रुपैयो छोडा लेब आ लज सेहो देखि लेब एहि सोचिक सावित्री पवन के कहलक तऽ ओ मनेमन गदगद भऽ गेल आ बाजल—‘ अहाँ बड भग्यमानी छी । किछुए दिन पहिने लजक चर्चा कएलहुँ आ आई मौका सेहो भेट गेल, मुदा हा...भऽ सकए तऽआबएमे देर सेहो भऽ जाएत ।
सात्रिवी आ पवन जनकपुर आएल । सभसँ पहिने ओ प्रभु मनि ट्रान्सफरसँ रुपैया छोडौलक आ दुनू गोटे होटल मे जाऽकऽ खाना खएलक ।
‘सावित्री ! एगो बात कहुँ’
‘की, कहुँ न ?’
‘कनिक दारु पि लू, तकरबाद लज देखा देव आ घर चलि जाएब’ पवन बाजल
‘आइए...लज मे बहुतो आदमी हएतै नहि । ओहिसँ तऽ लज देखबाक पैसा लैत होतैक । ह.... मुदा दारु पिएवाला आदमी हमरा नहि सोहाएय.. ।
‘अच्छा ठीक अछि हम  दारु नहि पिएब’ पवन कहैत अछि आ दुनू गोटे होटल सँ बाहर आबिकऽ —‘देखियौ एहि कोठाके भितर लज छैक । चलु आई अहाँक लजो देखाइए दैत छी ।’ लजक काउन्टर पर पवन नाम, ठेगना सभके सभ दोसर लिखबैत अछि सवित्रीके पैसा देएबाक कहैत छी ।
सावित्री पैसा काउण्टर पर बुझबैत, ‘आइए पवन, नाम ठेगाना सभ किछु गलतिए लिखा देलिएह....ऐना किए ?’
‘चलु नहि अहाँ अखन नहि बुझबन्हि ।’ पवन बाजल । ‘पहिने लज तऽ देखियो, बाद मे बात चित करब ।’
लजवाला एगो चाभी दैति कोठा दिस लऽ जाएत अछि । कोठा खोलिते पवन सावित्री के पकडएके प्रयास कएलक । ओ अपन बातक जालमे फसाबए चालहक कनिक देरक लेल सावित्रीके रुकि जायके मोन कएलक मुदा ओकर आगुमे रंजन आ राजाक आकृति आबि गेल ओ पवनके लजमे ठेलैत सडक पर चलि आएल । ओकरा बुझाएमे चलि आएल छल एहि ठाम रुकि गेलहुँ तऽ अनर्थ भऽ जाएत सोचैत ओ सिधे गाम चलि गेल ।

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