Monday, February 3, 2014

दल—दल में मधेशी दल

कैलास दास

आसन्न संविधान सभा की चुनाव से मुझे २०६२।०६३ की मधेश आन्दोलन स्मरण हो जाता है । यह आन्दोलन मधेशी के अधिकार को सुनिश्चित करने के लिए हुआ था । करीब १९ दिनों तक यह आन्दोलन चला, और इस आन्दोलन से ही २ सौ ४० वर्ष की वह कडी को तोड्ने का प्रयास हुआ, जिससे मधेशी शोषित, पीडित और अधिकार से हमेशा वञ्चित था । आज इसी का परिणाम है कि पानी के बुलबुले की तरह मधेश में राजनीतिक दल देखने को मिलता है । अगर मधेश आन्दोलन नही हुआ होता तो २०६४ साल चैत्र २८ गते को संविधान सभा चुनाव में मधेशी नेतागण को सांसद में नेतृत्व करने का मौका नही मिला होता । यह आन्दोलन के सफलता सिर्फ मधेशी दलों के लिए ही नही, जितने भी मधेशी नेता वर्षौ वर्ष तक नेपाली काँग्रेस, एकीकृत नेकपा माओवादी, नेकपा एमाले में एक कठपुतली की तरह कार्य करता रहा उनको भी मिला ।
इससे पहले मधेश में काँग्रेस, एमाले और एमाओवादीे अधिपत्य जमाए बैठा था । परन्तु अधिकांश मधेशी कार्यकर्ता केन्द्रीय पद तक भी नही जा सका । फिलहाल देखा जाए तो तराई के हरेक जिला से मधेशी नेताओं को कोई न काई मन्त्री पद पर बैठने को अवसर प्राप्त अवश्य हुआ है, चाहे वह किसी भी दल का नेता हो । यह बताना इस लिए आवश्यक है कि इसके वावजूद भी दुसरी संविधान सभा की चुनाव मधेशी दल कई कारणो से दल दल में फसता नजर आ रहा है ।
एकीकृत नेकपा माओवादी और एमाले की सरकार बनी तो सबसे पहला प्रहार मधेशी दलों पर ही हुआ । मधेशी दलों से बनी सभासदों से बार्गेनिङ्ग शुरु कर दिया । किसी को मन्त्री की लालच तो किसी को विदेश भ्रमण आदि इत्यादि के नामो पर मधेश में रहे ६ दलों को ३६ दलों में विभाजित करने मे सफल रहा । यहाँ तक की जिस कारण से मधेश आन्दोलन हुआ था वह मुद्दा तक कहाँ गायब हो गया सोचा तक नही । दुसरी बात मधेश आन्दोलन के साथ ही मधेश में हत्या हिंसा जैसा अपराधीक गतिविधि भी उत्पन्न हुआ और यह कहाँ से कैसे हुआ इसमें भी मधेशी नेतागण चुक गए । तीसरा स्वायत मधेश एक प्रदेश जो पहला माँग था उसे भुला दिया और अन्य अन्य कारणो से मधेशी दलों ने ही इतना बन्द हडताल किया की मधेश जनता मधेशी दलो से ही खिन्न रहने लगा ।
अभी दुसरा संविधान सभा के चुनाव होने जा रहा है, परन्तु मधेशी दल इस प्रकार मकर जाल मे फस चुके है कि अपने कार्यकर्ताओं पर भी विश्वास खोते नजर आ रहे, हमें ही मत देगें । कब किस दल मे कौन समावेश, कौन किसके लिए भोट मांगेंगा विश्वास नही कर पा रहा है । यह दलों के नेता में इमान्दारीता नही होने का परिणाम है । यह सिर्फ मधेशी दलों में ही नही अपितु नेपाली काँग्रेस, एमाओवादी, एमाले सभी दलों को मधेश में यही हाल है । वर्षो से लगे कार्यकर्ताओं को इस बार चुनाव में टिकट नही देना, नव प्रवेशी को अच्छे पद और उनके बल पर शक्ति प्रदर्शन करना इसका ज्वलन्त उदाहरण हो सकता है ।
सबसे बडी आश्चर्य की बात तो यह है कि संविधान सभा के चुनाव के बाद फिर से मधेशी असुरक्षित नही रहेगा कहा नही जा सकता है ? और इसका कारक मधेशी दल ही होगें । इस चुनाव मे मधेशी दलों ने अपने —आपको शक्तिशाली बनने के लिए ठेकेदार और बाहुबलियों को सदस्यता ही नही सभासद में लडने के लिए टिकट भी मुहैया किया है । इसमे दोनो अपनी भलाई सम्झी है । दलों में इमान्दारीता के कारण मधेशी उदासिन है । इधर अपनी गल्ती पचाने के लिए इससे अच्छा सुअवसर नही मिल सकता है नव प्रवेशी ठेकेदार एवं बाहुबलियो के लिए ।
इसमे पहला कारण ये है तो दुसरा नातावाद, जातिवाद । मधेश में प्रायः दल जातिय समिकरण के आधार सञ्चालित है । इन लोगों की मान्यता है कि देश में पाँच—सात सभासद् की सीट आ जाती है तो एक पार्टी क्यों नही खोल लिया जाए ? जातिय संक्रिन्ता के नाम पर राजनीति करने की सोच से ही मधेशी दल दलदल में फसती नजर आ रही हंै । स्मरणीय है कि मधेश आन्दोलन मधेश के मुद्दो पर हुआ था । और यही कारण था कि पिछले चुनाव में मधेशी दल तीसरे दलो के नाम से जानने लगा था ।
परन्तु आज विभाजित दल को जातिय आधार पर जाना जाने लगा है । विभाजित किस सोंच से हुआ है वे उनलोगों को ही मालुम होगा, लेकिन मधेशी अपने अधिकार के लिए संगठित होकर ही लडा था ।
मधेशी दलों में एक और विडम्बना सुनने में आ रहा है कि वह दुसरे दल के अलोकप्रिय उम्मेदवार बनाकर उससे मोटी पगार लेने में सफल हो रहा है । उनका तर्क है कि किसी भी पार्टी में इतना इमान्दारिता नही है कि वह जनता के बीच में बिना पैसा बाटे चुनाव जित सके,और इसी को कहा गया है कि ‘पैसा फेको और चुनाव जितो’ यह कितनी दुःखदायी बात है कि प्रथम संविधान सभा के चुनाव में कहीं पर कुछ भी बागेर्निङ्ग नही हुआ था । आशा और विश्वास का दीप जलाकर मधेशी जनता ने अपने परम प्रिय उम्मेदवार को मत दिया था । परन्तु अभी हालत ऐसा देखा जा रहा है कि नेता जनता पर विश्वास करने मे असमर्थ है । यह दोष जनता मे नही, नेता के पूर्व के करतुतो पर है । जिन्हे शहर मे रहने का औकात नही था वह आज मधेश का नेतृत्व तो आवश्य करता है परन्तु अपने स—परिवार के साथ देश के राजधानी मे विलासी जीवन भोग रहा है । क्या यह बात सिर्फ उन्ही के समझ में है कि झोपडी में नार्कीय जीवन जी रहे मधेशीयों को भी मालूम है ? मधेशीयों को मधेश आन्दोलन उसकी जीवन की सुन्दर भविष्य एवं रेखा खिचा था । उस पर ब्रजपात गिराने वाले मधेशी नेताओं को किस नजर से मधेशी मतदाता देखेगें ।
वर्षो से मधेश के ग्रामो ताक जाने के लिए सडके नही है । किसान के लिए सिंचाई की सुविधाए नही है । युवा को कैसे रोजगारी से जोडा जाए ऐसा सोच नही है, ऐसी समस्या पूर्व में भी था और आज भी है । अगर मधेशी जनता केवल मत देने के लिए ही जन्म लिया है तो कोई बात नही । परन्तु अधिकार चाहता है तो इस चुनाव मे एक अच्छे चेहरे को लाना ही होगा जो मधेशी जनता के मर्म और भावना को समझ सकें ।
निर्वाचन में जैसे उम्मेदवार को खडा किया गया है उससे नही लगता है कि संविधान बन सकेगा ? यह अवश्य होगा कि पैसे के खेल मे जनता एक बार असफल हो गया तो उसका ऋण उसे बारम्बार चुकाना  परेगा । वह हमारे उपर महंगाई की बोझ डाल सकता है, बेरोजगारी की समस्या ला सकता है । शिक्षा में गुणस्तरहीनता, किसानो की असुविधा, बिजली बत्ती आदि इत्यादि की समस्या से पूर्व जैसे ही झेलना पर सकता है । तसर्थ अब जनता को भी सतर्क होने की आवश्यकता है । किस मधेशी दल के नेतागण को मत दे जो हमे संविधान में अधिकार सुनिश्चित करा सके । देश में शान्ति और विकास ला सके । अगर अभी चुक गये तो जिस प्रकार के समस्या को सामना करना पड रहा है उससे भी ज्यादा समस्या भोगना पड सकता है । 
चुनाव नजदीक आ रही है । नेतागण पैसे के साथ ग्रामीण दौडे में जोरसोर के साथ लगें है । पार्टी और अपना बायो डाटा समेत जनता में बाँड रही है । इतना ही नही जनता को अपनी ओर खिचाब के लिए कोई भी कसर छोडा नही है । छल, कल, बल और धन सब एक कर चुका है । परन्तु जनता की सवाल एक ही है अधिकार सुनिश्चिता की । यह तो साफ है कि अधिकांश मधेशी जनता मधेशी दलों के ही मत देगें । लेकिन मधेशी दल ही इतने है कि यह मत एक प्रसाद बनकर न रह जाए और फिर से वही बडी पार्टी कहलानेवाला एकिकृत माओवादी, नेपाली काँग्रेस और एमाले न कहीं आगे निकल जाए ।
भारत में अंग्रेज ने ‘फुट डालो और राज करों’ की राजनीति की थी और पुरे भारत पर कब्जा जमा लिया था । परन्तु जब भारतीय नागरिक ने अंग्रेज की राजनीति समझ गयी तो इतने शक्तिशाली हो गये की अंग्रेज को भारत छोडकर जाना पडा । यह उदाहरण मै इस लिए देना आवश्यक सम्झा हूँ कि वर्षो से मधेश पर खसवादी का ही शासन था । परन्तु जब मधेशी दलो की बारी आई हैं तो शक्तिशाली होना चाहिए न कि कमजोर ।
अभी मधेश में अशान्ति फैलाने के लिए फिर से एक अपराधी तत्व उत्पन्न हुआ है जो मधेशी सभासदो पर हमला करता फिरता है ।  बारा जिला से एमाले के सभासद्  मोहम्मुद आलम उपर गोली प्रहार कर हत्या किया है । उसी प्रकार सिरहा में भी संघीय सद्भावना पार्टी का महिला उम्मदेवार आशा पाल उपर हमला हुआ है । वही का फोरम लोकतान्त्रिक का उम्मेदवार शत्रुधन सिंह उपर गोली प्रहार हुआ है । उतना ही नही मधेशी पार्टी बीच लडाने की षडयन्त्र भी हो रहा है, जिसका प्रत्यक्ष उदाहरण सिरहा, महोत्तरी में देखा गया है । मधेशप्रति इतने कुठाराघात के वावजुद भी मधेश अपना अच्छा प्रतिनिधित्व चुनने मे चुक गया तो फिर से मधेश वर्षै पाछा नही परेगा कहा नही जा सकता है ।
मधेशी दल बहुत कमजोर और छिन्नभिन्न है । इससे खसवादीयाें को अन्तरआत्मा में किसी का गुबारा भी उठता होगा । लेकिन इतना तो माननाही होगा कि मधेश आन्दोलन के बाद जो मजबुती मधेशी और मधेशी दल मे आना चाहिए था, सो नही आया । लेकिन इतना तो सभी को सम्झना ही होगा कि एक से एक निरंकुश शासक को देश में दिन लग गए तो अभी भी बचे खुचे खसवादी दल आने वाले दिन मे हासिए पर नही जाऐगा ऐसी बात नही है, है तो सिर्फ संजम, धैर्य एवं चरित्र बचाने का है ।
हिमालिनी हिन्दी मासिक पत्रिका मे प्रकाशित

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