कैलास दास
जनकपुरधाम । जिस प्रकार एमाओवादी का जनयुद्ध पश्चात हुआ जनआन्दोलन और उसके बाद राजतन्त्र का अन्त्य हुआ था उसी प्रकार मधेश आन्दोलन सत्ता लिप्ता शासको को सत्ता हाथ से छुटने का भय समा गया है । एमाओवादी की जनयुद्ध को तत्कालिन राजा ज्ञानेन्द शाह ने छुटकी मे मसले का प्रयास किया था , परिणाम निकाला की राजतन्त्र ही अन्त्य हो गया ।
२ सौ ३७ वर्ष के राजतन्त्र के खिलाप वि.स. २०५२ साल में एकीकृत माओवादी ने जनयुद्ध शुरु किया । माओवादी का जनयुद्ध शुरुवात में माओवादी का समर्थक और कार्यकर्ता भी बहुत कम था । उस समय नेपाल का राजा वीरेन्द्र का शासन चलता था । राजा वीरेन्द्र ने अपनी सेना शासन के बल पर माओवादी जनयुद्ध को हमेसा दवाने की कोशीशे की और माओवादीयों का समर्थक बढता चला गया ।
जब आन्दोलन सशक्त रुप लेने लगा तो राजनीतिक दल बीच भी बेमेल हो गया और वि.स. २०५८ साल जेठ १९ शुक्रवार का दिन दरबार हत्या काण्ड हुआ जिनमे तत्कालीन राजा वीरेन्द्र, रानी ऐश्वर्य, युवराज दीपेन्द्र, अधिराजकुमार निराजन, अधिराजकुमारी श्रुति, शान्ति को मृत्यु हो गया ।
उसके बाद उसका भाई ज्ञानेन्द्र नेपाल का नयाँ राजा के रूप में गद्दी पर बेठे । तात्कालिन राजा ज्ञानेन्द्र ने भी माओवादी जनयुद्ध के दवाव के लिए सभी हथकण्डा अपनाए । यहाँ तक की उन्होने २०६१ साल माघ १९ गते नर्वाचित संसद भी भङ्ग कर सत्ता अपने हात मे ले लिए । अपनी सेना के बल पर माओवादी उपर कहर ढाल्ने लगा । परिणामतः माओवादी का जनयुद्ध दवने की वजह और बढता गया । जिस प्रकार अभी शासक वर्ग रेडियो, टिभी, पत्रपत्रिका और टेलिभिजन सञ्चारमाध्यम में मधेश का समाचार को लेकर सेन्सरपिस लगा दी है वैसा ही ज्ञानेन्द्र ने भी किया था ।
राजा ज्ञानेन्द्र का क्रुरु शासन के कारण शसस्त्र युद्ध कर रहा नेकपा माओवादी और आन्दोलनरत सात राजनैतिक पार्टीयो के बीच वि.स. २०६२ फागुन मे भारत का मध्यस्थता मे नयाँ दिल्ली में वार्ता हुआ और उसमे १२ बुँदे सहमती हुई । सम्झौता अनुसार माओवादी ने भी अपना हतियार रख दिया और शान्तिपूर्ण जनआन्दोलन में सहभागी हो गया । जब सभी दल मिल गया तो सुरक्षाकर्मी ने आन्दोलन को दवाव के लिए और कहर ढाल्ने लगा । परिणाम २०६२÷०६३ ने मे जनआन्दोलन शुरु हो गया और राजतन्त्र का अन्त्य हो गया ।
इस घटना अभी तक भुलाया नही गया है । किन्तु राजा ज्ञानेन्द्र जैसा अभी का शासक वर्ग मधेशी जनता के अधिकार के वास्ते कहर ढाल रहे है । जे हथकण्डा तत्कालिन शासक और राजा ने माओवादी जनयुद्ध में किया था आज वही हथकण्डा फिलहाल एमाले, काँग्रेस, माओवादी और राप्रपा कर रहे है ।
मधेशी जनता अपनी अधिकार के लिए करीब एक दशक से सडक और सदन आन्दोलन करते आ रहे है । किन्तु शासक वर्ग कभी भारतीय कहकर ‘नेगलेट’ तो कभी अराष्ट्रवादी का संज्ञा देकर आन्दोलन को दवाने में लगी है । मधेश आन्दोलन वि.स. २०६४÷०६५ में शुरु हुआ । उस समय मे प्रधानमन्त्री गिरिजा प्रसाद कोइराला थे । उन्होने भी मधेशवादी दल के साथ १९ बुँदे सम्झौता किया और मधेश आन्दोलन को स्थगित कर दिया । सम्झौता तो हुआ लेकिन कार्यान्वयन नही हुआ । प्रधानमन्त्री कोइराला के स्वर्गवास के बाद अब तक मधेश में आन्दोलन जारी है ।
२०७२ साल असोज ३ गते नेपाल में लोकतान्त्रिक संविधान जारी किया गया । जिसमे मधेश को अधिकार से वञ्चित रखा गया है । यहाँ तक की अन्तरिम संविधान मे दिया गया अधिकार भी छिन लिया गया है । नेपाल का नव संविधान जारी हुआ तब नेपाल का ही आधा जनसंख्या दीपावली और आधा जनसंख्या ‘ब्लक आउट’ के रुपमें अपनाया ।
रातो रात जारी किया गया संविधान के संशोधन के लिए जब मधेशवादी दलो ने आन्दोलन किया तो आन्दोलनकारीयो को छाती मे गोली मारकर हत्या कर दिया । जब आन्दोलन सशक्त होन लगा तो बारम्बार राज्य र मधेशवादी दलके साथ सम्झौता हुआ लेकिन कार्यान्वयन एक भी बुँदा पर अभी तक नही हो सका ।
संविधान जारी से लेकर अभी तक १० प्रधानमन्त्री बने । सभी ने मधेशवादी दलो को सरकार मे जाने तक संविधान संशोधन करने का अश्वासन तो दिया । किन्तु सरकार मे जाने के बाद आन्दोलन करने पर विवस ही करता रहा । फिलहाल अभी स्थानीय तह की निर्वाचन को तिथि घोषणा हो चुका है जिसके विरोध में मधेशवादी दल सडक पर है ।
कहने का मतलव अगर माओवादी का जनयुद्ध को जिस प्रकार शासक वर्ग ने छोट और कमजोर समझता था उसी प्रकार अगर मधेशवादी दलों को आन्दोलन को कमजोर और छोट समझता है तो यह उनकी भूल है । माओवादी ने जिस प्रकार राजतन्त्र को अन्त्य कर दिया है उसी प्रकार समय में खस शासक वर्ग सचेत नही हुआ तो मुलुक मे द्वन्द ही नही खश का हाथ से भी निकल जाऐगा । इसके लिएर आरोप÷प्रत्यारोप विकल्प नही है, विकल्प है तो संविधान संशोधन ।
अभी मधेशवादी दल सशक्त हो चुका है । एक एक मधेशी जनता सडक पर आने के लिएर तैयार है । मधेश आन्दोलन को उच्चाई में ले जाने के लिए ६ दल मिलकर राष्ट्रीय जनता पार्टी नेपाल (राजपा) नामाकरण की है । यह एक शक्ति के रुपमे आगा आया है । देश को खतरा मुक्त और अपनी बहुलता बचाने के लिए अच्छा होगा की निर्वाचन करने में जितनी बल प्रयोग करने को सोच रही है वह संविधान संशोधन मे लगाबे ।
निर्वाचन मुल्क के लिए अपरिहार्य है । लेकिन जिस निर्वाचन मे अधिकार वञ्चित हो वैसा निर्वाचन के पक्ष में मधेशी जनता नही है । निर्वाचन के वातावरण बनाने के लिए संविधान संशोधन ही एक विकल्प है ।
मुल्क आर्थिक और राजनीतिक द्वन्द में फस चुकी है और यही हालात माओवादी जनयुद्ध में भी था । उस समय भी परिवर्तन हुआ और आज भी होगा जनविश्वास है ।
जनकपुरधाम । जिस प्रकार एमाओवादी का जनयुद्ध पश्चात हुआ जनआन्दोलन और उसके बाद राजतन्त्र का अन्त्य हुआ था उसी प्रकार मधेश आन्दोलन सत्ता लिप्ता शासको को सत्ता हाथ से छुटने का भय समा गया है । एमाओवादी की जनयुद्ध को तत्कालिन राजा ज्ञानेन्द शाह ने छुटकी मे मसले का प्रयास किया था , परिणाम निकाला की राजतन्त्र ही अन्त्य हो गया ।
२ सौ ३७ वर्ष के राजतन्त्र के खिलाप वि.स. २०५२ साल में एकीकृत माओवादी ने जनयुद्ध शुरु किया । माओवादी का जनयुद्ध शुरुवात में माओवादी का समर्थक और कार्यकर्ता भी बहुत कम था । उस समय नेपाल का राजा वीरेन्द्र का शासन चलता था । राजा वीरेन्द्र ने अपनी सेना शासन के बल पर माओवादी जनयुद्ध को हमेसा दवाने की कोशीशे की और माओवादीयों का समर्थक बढता चला गया ।
जब आन्दोलन सशक्त रुप लेने लगा तो राजनीतिक दल बीच भी बेमेल हो गया और वि.स. २०५८ साल जेठ १९ शुक्रवार का दिन दरबार हत्या काण्ड हुआ जिनमे तत्कालीन राजा वीरेन्द्र, रानी ऐश्वर्य, युवराज दीपेन्द्र, अधिराजकुमार निराजन, अधिराजकुमारी श्रुति, शान्ति को मृत्यु हो गया ।
उसके बाद उसका भाई ज्ञानेन्द्र नेपाल का नयाँ राजा के रूप में गद्दी पर बेठे । तात्कालिन राजा ज्ञानेन्द्र ने भी माओवादी जनयुद्ध के दवाव के लिए सभी हथकण्डा अपनाए । यहाँ तक की उन्होने २०६१ साल माघ १९ गते नर्वाचित संसद भी भङ्ग कर सत्ता अपने हात मे ले लिए । अपनी सेना के बल पर माओवादी उपर कहर ढाल्ने लगा । परिणामतः माओवादी का जनयुद्ध दवने की वजह और बढता गया । जिस प्रकार अभी शासक वर्ग रेडियो, टिभी, पत्रपत्रिका और टेलिभिजन सञ्चारमाध्यम में मधेश का समाचार को लेकर सेन्सरपिस लगा दी है वैसा ही ज्ञानेन्द्र ने भी किया था ।
राजा ज्ञानेन्द्र का क्रुरु शासन के कारण शसस्त्र युद्ध कर रहा नेकपा माओवादी और आन्दोलनरत सात राजनैतिक पार्टीयो के बीच वि.स. २०६२ फागुन मे भारत का मध्यस्थता मे नयाँ दिल्ली में वार्ता हुआ और उसमे १२ बुँदे सहमती हुई । सम्झौता अनुसार माओवादी ने भी अपना हतियार रख दिया और शान्तिपूर्ण जनआन्दोलन में सहभागी हो गया । जब सभी दल मिल गया तो सुरक्षाकर्मी ने आन्दोलन को दवाव के लिए और कहर ढाल्ने लगा । परिणाम २०६२÷०६३ ने मे जनआन्दोलन शुरु हो गया और राजतन्त्र का अन्त्य हो गया ।
इस घटना अभी तक भुलाया नही गया है । किन्तु राजा ज्ञानेन्द्र जैसा अभी का शासक वर्ग मधेशी जनता के अधिकार के वास्ते कहर ढाल रहे है । जे हथकण्डा तत्कालिन शासक और राजा ने माओवादी जनयुद्ध में किया था आज वही हथकण्डा फिलहाल एमाले, काँग्रेस, माओवादी और राप्रपा कर रहे है ।
मधेशी जनता अपनी अधिकार के लिए करीब एक दशक से सडक और सदन आन्दोलन करते आ रहे है । किन्तु शासक वर्ग कभी भारतीय कहकर ‘नेगलेट’ तो कभी अराष्ट्रवादी का संज्ञा देकर आन्दोलन को दवाने में लगी है । मधेश आन्दोलन वि.स. २०६४÷०६५ में शुरु हुआ । उस समय मे प्रधानमन्त्री गिरिजा प्रसाद कोइराला थे । उन्होने भी मधेशवादी दल के साथ १९ बुँदे सम्झौता किया और मधेश आन्दोलन को स्थगित कर दिया । सम्झौता तो हुआ लेकिन कार्यान्वयन नही हुआ । प्रधानमन्त्री कोइराला के स्वर्गवास के बाद अब तक मधेश में आन्दोलन जारी है ।
२०७२ साल असोज ३ गते नेपाल में लोकतान्त्रिक संविधान जारी किया गया । जिसमे मधेश को अधिकार से वञ्चित रखा गया है । यहाँ तक की अन्तरिम संविधान मे दिया गया अधिकार भी छिन लिया गया है । नेपाल का नव संविधान जारी हुआ तब नेपाल का ही आधा जनसंख्या दीपावली और आधा जनसंख्या ‘ब्लक आउट’ के रुपमें अपनाया ।
रातो रात जारी किया गया संविधान के संशोधन के लिए जब मधेशवादी दलो ने आन्दोलन किया तो आन्दोलनकारीयो को छाती मे गोली मारकर हत्या कर दिया । जब आन्दोलन सशक्त होन लगा तो बारम्बार राज्य र मधेशवादी दलके साथ सम्झौता हुआ लेकिन कार्यान्वयन एक भी बुँदा पर अभी तक नही हो सका ।
संविधान जारी से लेकर अभी तक १० प्रधानमन्त्री बने । सभी ने मधेशवादी दलो को सरकार मे जाने तक संविधान संशोधन करने का अश्वासन तो दिया । किन्तु सरकार मे जाने के बाद आन्दोलन करने पर विवस ही करता रहा । फिलहाल अभी स्थानीय तह की निर्वाचन को तिथि घोषणा हो चुका है जिसके विरोध में मधेशवादी दल सडक पर है ।
कहने का मतलव अगर माओवादी का जनयुद्ध को जिस प्रकार शासक वर्ग ने छोट और कमजोर समझता था उसी प्रकार अगर मधेशवादी दलों को आन्दोलन को कमजोर और छोट समझता है तो यह उनकी भूल है । माओवादी ने जिस प्रकार राजतन्त्र को अन्त्य कर दिया है उसी प्रकार समय में खस शासक वर्ग सचेत नही हुआ तो मुलुक मे द्वन्द ही नही खश का हाथ से भी निकल जाऐगा । इसके लिएर आरोप÷प्रत्यारोप विकल्प नही है, विकल्प है तो संविधान संशोधन ।
अभी मधेशवादी दल सशक्त हो चुका है । एक एक मधेशी जनता सडक पर आने के लिएर तैयार है । मधेश आन्दोलन को उच्चाई में ले जाने के लिए ६ दल मिलकर राष्ट्रीय जनता पार्टी नेपाल (राजपा) नामाकरण की है । यह एक शक्ति के रुपमे आगा आया है । देश को खतरा मुक्त और अपनी बहुलता बचाने के लिए अच्छा होगा की निर्वाचन करने में जितनी बल प्रयोग करने को सोच रही है वह संविधान संशोधन मे लगाबे ।
निर्वाचन मुल्क के लिए अपरिहार्य है । लेकिन जिस निर्वाचन मे अधिकार वञ्चित हो वैसा निर्वाचन के पक्ष में मधेशी जनता नही है । निर्वाचन के वातावरण बनाने के लिए संविधान संशोधन ही एक विकल्प है ।
मुल्क आर्थिक और राजनीतिक द्वन्द में फस चुकी है और यही हालात माओवादी जनयुद्ध में भी था । उस समय भी परिवर्तन हुआ और आज भी होगा जनविश्वास है ।
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